...दिन में कुछ लम्हें चुरा कर .. छत पे अकेले कुछ गुनगुनाने चली गयी थी.
धूप काफी थी... साथ किसी सहेली को ले जाती तो खींच कर मुझे छाँव में ले जा खड़ा कर देती.. मगर तुम तो मुझे जानते ही हो...
वो हवा बह रही थी ना...बस मेरे लिए काफी था... बालों को सुलझाते-सुलझाते पता ही नहीं चला कब... आँखों के सामने एक महफ़िल सी सजने लगी... और कई चेहरे सामने आने लगे...
याद तो नहीं के मैंने कब बुलावा दिया.. पर आकर खामोश से खड़े हो गए वो...
कुछ देर बाद समझ आया... की मेरे कुछ गीत सुन रहे थे वो...
न जाने क्या गुनगुना रही थी मैं...मगर ऐसा लगा...
जैसे उनकी नज़रें तो मुझ पर गडी हुई थी...पर देखा उन्होंने सिर्फ तुम्हें..
सुर तो मेरे थे पर आवाज़ सिर्फ तुम्हारी...
गीत मेरे, पर धुन तुम्हारी...
वो खामोश चेहरे..
उन लम्हों के चलते..
कभी गुम से हो चले...
तो कभी नम...
और कुछ..
कभी साथ दे चले...
इससे ज्यादा तो मैं खुद नहीं जानती... मैंने आँखें बंद कर ली थी...
मन कहीं गुम गया था... और पलकें आप में ह़ी चिपक गयीं थी... न जाने कहाँ से उस धूप में भी नमी उभर आई थी...
…
आज फिर... छत पर खड़े, धूप में और कुछ बहती हवा के बीच...कुछ गीत गुनगुनाये थे मैंने... सुर भी लग रहे थे... आवाज़ भी गूँज
रही थी के... बस अचानक एक नाजायज़ लम्हे ने एक ख़याल जगा दिया...
के ये हवा बहते बहते.. तुम तक मेरी आवाज़ तो पोहंचाती होगी ना...? मेरे गीत तुम्हें सुना के तो जाती है ना? मेरी आवाज़ तुम तक बहती चली तो आती है ना...?
बस फिर आँख खुल गयी... मैं तो छत पर वहीँ खड़ी थी... पर न तुम थे... न वो चेहरे... न कोई सहेली... बस कुछ बहती हवा और धूप थी...
...
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