न जाने क्यूँ रोज़ रात एक सपना देखती हूँ..
दिन भर जिसे तोड़ने की कोशिश करती हूँ
न जाने क्यूँ रोज़ एक सपना देखती हूँ
उस सपने में
एक राजकुमार को देखती हूँ
घोड़े पे बैठ राजमहल को पीछे छोड़ वो घने जंगलों में निकल आता है
और उन्ही भटके रास्तों में
उसे मैं मिल जाती हूँ
पता नहीं क्यूँ रोज़
जंगल के बीचों बीच
झींगुर के शोर में
एक बरगद की छाँव में मैं बैठ उसे अपनी कहानी सुनाती हूँ
मुझे ताकता रहता है
मेरे मन की गहराईयों में
छुपे जवाब खोजता है
मैं भी उसे नहीं रोकती
इस आड़ में के शायद
उसे ही कुछ मिल जाए
पर कहानी अभी पूरी हुई के नहीं...
सुबह हो जाती है
एक शोर गुल शुरू हो जाता है
घना सा वो जंगल धुंधला जाता है
रास्ते दीख जाते हैं
वो राजकुमार
एक परछाई बन
और मैं एक
साए की तरह
सवेरे की रौशनी मेंपिघल जाते हैं
मन के किसी महल में
दोनों बंद हो जाते हैं
न जाने क्यूँ रोज़ सुबह हो जाती है...
हडबडा कर
एक बार फिर
उस सपने को खोजने लगती हूँ
और मिलते ही
उसे फिर
तोड़ने की कोशिश में लगी रहती हूँ
पर इससे पहले के वो टूटे
शाम फिर ढल जाती है...
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