Friday, August 6, 2010

न जाने क्यूँ ...


न जाने क्यूँ रोज़ रात एक सपना देखती हूँ..
दिन भर जिसे तोड़ने की कोशिश करती हूँ 
पात्र शाम ढलते ही 
उसी में फिर खो जाती हूँ  
न जाने क्यूँ रोज़ एक सपना देखती हूँ

न जाने क्यूँ रोज़ 
उस सपने में
एक राजकुमार को देखती हूँ
घोड़े पे बैठ राजमहल को पीछे छोड़ 
वो घने जंगलों में निकल आता है
और उन्ही भटके रास्तों में 
उसे मैं मिल जाती हूँ 

पता  नहीं क्यूँ रोज़
जंगल के बीचों बीच 
झींगुर के शोर में
एक बरगद की छाँव में मैं  बैठ 
उसे अपनी कहानी सुनाती हूँ 

न जाने क्यूँ 
सब छोड़ छाड़
वो भी रोज़ मेरी कहानी सुनता है
अपनी बेजुबान आँखों मेंकई सवाल भर 
मुझे ताकता रहता है
मेरे मन की गहराईयों में
छुपे जवाब खोजता है


मैं भी उसे नहीं रोकती 
इस आड़ में के शायद
उसे  ही कुछ मिल जाए 



पर कहानी अभी पूरी हुई के नहीं...
सुबह हो जाती है 
एक  शोर गुल शुरू हो जाता है
घना सा वो जंगल धुंधला जाता है  
रास्ते  दीख जाते हैं


वो राजकुमार 
एक परछाई बन 
और मैं एक 
साए की तरह 
सवेरे की रौशनी में
पिघल जाते हैं 


मन के किसी महल में 
दोनों बंद हो जाते हैं 


न जाने क्यूँ रोज़ सुबह हो जाती है...
लाख कोशिश के बावजूद 
मेरी आँख खुल जाती है
और खुलते ही 
हडबडा कर 
एक बार फिर 
उस सपने को  खोजने लगती हूँ 
और मिलते ही 
उसे फिर 
तोड़ने की कोशिश में लगी रहती हूँ


पर इससे पहले के वो टूटे 
शाम फिर ढल जाती है...




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